कृपया विश्व को एक रेगिस्तान न बनाएं! हम इस धरती से प्रेम व करुणा लुप्तप्राय होने नहीं दे सकते। यदि ऐसा हुआ तो मनुष्य ही नहीं रहेगा, मनुष्य के रूप में पशु रह जायेगा। वर्तमान स्थिति स्थिति को देखते हुए, अम्मा को संदेह होने लगता है कि कदाचित शांति तथा एकता चाहने वाले लोगों की संख्या दिन-प्रतिदिन घटती जा रही है।
क्या मनुष्य जान-बूझ कर अपने भीतर पाशविक-वृत्तियों को बढ़ावा दे रहा है? अथवा वो मौजूदा परिस्थितियों का असहाय शिकार हो गया है? कारण जो भी हो, केवल मनुष्य के सामर्थ्य में विश्वास रखना गलत होगा। हमें परमात्मा के सामर्थ्य की आवश्यकता होगी। परमात्मा की शक्ति कहीं बाहर नहीं, हमारे भीतर है, केवल हमें इसे जागृत करना है।
जिस शान्ति की हम जिज्ञासा करते हैं, वो कोई अध्यारोपित शान्ति नहीं और न ही मृत्योपरांत प्राप्त होने वाली कोई वस्तु है। यह वो शान्ति है जिसका समाज में तब प्राकट्य होता है जब सब अपने-अपने धर्म पर अटल रहते हों। प्रत्येक व्यक्ति को दूसरे में अपनी आत्मा का ही दर्शन करते हुए दूसरे का सम्मान करना चाहिए।
आज, प्रार्थना एवं साधना की पहले से कहीं अधिक आवश्यकता है। लोग ऐसा सोचते हैं कि, "केवल मेरे प्रार्थना करने से क्या लाभ हो सकता है?" ऐसी सोच ही गलत है।
प्रार्थना द्वारा, हम प्रेम के बीज बो रहे हैं। पूरे रेगिस्तान में एक भी फ़ूल खिले तो कुछ तो होगा। वहाँ एक भी वृक्ष उगाया जाए तो क्या थोड़ी सी छाया नहीं देगा? बच्चो, यह सदा याद रहे - प्रार्थना प्रेम है और प्रेम ही के माध्यम से विश्व भर में शुद्ध प्रेम की तरंगें हिलोरें लेने लगती हैं।