बीसवीं सदी का अंत आते-आते समय सचमुच बदल गया है। कभी संवेदनाएँ इतनी समर्थता प्रकट करती थीं कि मिट्टी के द्रोणाचार्य एकलव्य को धनुष विद्या में प्रवीण-पारंगत कर दिया करते थे। मीरा के कृष्ण उसके बुलाते ही साथ नृत्य करने के लिए आ पहुँचते थे। गान्धारी ने पतिव्रत भावना से प्रेरित होकर आँखों में पट्टी बाँध ली थी और आँखों में इतना प्रभाव भर लिया था कि दृष्टिपात करते ही दुर्योधन का शरीर अष्ट-धातु का हो गया था। तब शाप-वरदान भी शस्त्र प्रहारों और बहुमूल्य उपहारों जैसा काम करते थे। वह भाव-संवेदनाओं का चमत्कार था। उसे एक सच्चाई के रूप में देखा और हर कसौटी पर सही पाया जाता था।
अब भौतिक जगत ही सब कुछ रह गया है। आत्मा तिरोहित हो गई। शरीर और विलास-वैभव ही सब कुछ बनकर रह गए हैं। यह प्रत्यक्षवाद है। जो बाजीगरों की तरह हाथों में देखा और दिखाया जा सके वही सच और जिसके लिए गहराई में उतरना पड़े, परिणाम के लिए प्रतीक्षा करनी पड़े, वह झूठ। आत्मा दिखाई नहीं देती। परमात्मा को भी अमुक शरीर धारण किए, अमुक स्थान पर बैठा हुआ और अमुक हलचलें करते नहीं देखा जाता इसलिए उन दोनों की ही मान्यता समाप्त कर दी गई।
भौतिक विज्ञान चूँकि प्रत्यक्ष पर अवलम्बित है। उतने को ही सच मानता है जो प्रत्यक्ष देखा जाता है। चेतना और श्रद्धा में कभी शक्ति की मान्यता रही होगी, पर वह अब इसलिए अविश्वस्त हो गई कि उन्हें बटन दबाते ही बिजली जल जाने या पंखा चलने लगने की तरह प्रत्यक्ष नहीं देखा जा सकता। जो प्रत्यक्ष नहीं वह अमान्य, भौतिक विज्ञान और दर्शन की यह कसौटी है। इस आधार पर परिवर्तन का लाभ तो यह हुआ कि अन्ध-विश्वास जैसी मूढ़-मान्यताओं के लिए गुंजायश नहीं रही और हानि यह हुई कि नीतिमत्ता, आदर्शवादिता, धर्म-धारणाओं को भी अस्वीकार कर दिया गया। इसलिए मानवी गरिमा के अनुरूप अनुशासन भी लगभग समाप्त होने जा रहा है। भक्ति के बिना वह सब उपलब्ध नहीं हो सकता जिसकी हम इस जीवन में कामना करते हैं।
प्राचीन काल में एक साधारण गृहस्थ से लेकर राजे-महाराजे सभी ईश्वरनिष्ठ हुआ करते थे। इतिहास साक्षी है कि उस समय इस देश में आर्थिक या भौतिक सम्पत्ति की संकीर्णता नाम मात्र को भी न थी। ईश्वर-भक्ति के साथ उन लोगों ने परमात्मा की क्रिया-शक्ति को भी धारण किया हुआ था फलस्वरूप अभाव का कहीं नामोनिशान नहीं था। एक राजा जितना सुखी और सन्तुष्ट हो सकता था प्रजा भी उतनी सुखी और सम्पन्न होती थी। आत्म-कल्याण के लिये उन लोगों ने एक अवधि आयु निर्धारित कर ली थी तभी उसके लिये प्रस्थान करते थे। इसके पूर्व तक साँसारिक सम्पदाओं, सुख और ऐश्वर्य का पूर्ण उपभोग भी किया करते थे। यह स्थिति रहने तक हमारे देश में किसी भी तरह की सम्पन्नता में कमी नहीं रही।
प्राचीन काल में एक साधारण गृहस्थ से लेकर राजे-महाराजे सभी ईश्वरनिष्ठ हुआ करते थे। इतिहास साक्षी है कि उस समय इस देश में आर्थिक या भौतिक सम्पत्ति की संकीर्णता नाम मात्र को भी न थी। ईश्वर-भक्ति के साथ उन लोगों ने परमात्मा की क्रिया-शक्ति को भी धारण किया हुआ था फलस्वरूप अभाव का कहीं नामोनिशान नहीं था। एक राजा जितना सुखी और सन्तुष्ट हो सकता था प्रजा भी उतनी सुखी और सम्पन्न होती थी। आत्म-कल्याण के लिये उन लोगों ने एक अवधि आयु निर्धारित कर ली थी तभी उसके लिये प्रस्थान करते थे। इसके पूर्व तक साँसारिक सम्पदाओं, सुख और ऐश्वर्य का पूर्ण उपभोग भी किया करते थे। यह स्थिति रहने तक हमारे देश में किसी भी तरह की सम्पन्नता में कमी नहीं रही।
जीव या मनुष्य परमात्मा का ही दुर्बल और विकृत भाव है। दरअसल जीव कोई वस्तु नहीं परमात्मा ही अनेक रूपों में प्रतिभासित हो रहा है। जब तक हमारी कल्पना जीव भाव में रहती है तब तक अपनी शक्ति और सामर्थ्य भी वैसी ही तुच्छ और कमजोर दिखाई देती है। ईश्वर भक्ति से कीट के अंग परिवर्तन जैसा प्रारम्भिक कष्ट तो अवश्यम्भावी है किन्तु जीव का विकास सुनिश्चित है। प्रारम्भ में वह स्वार्थ, परमार्थ, माया, ब्रह्म, लोक और परलोक की मोह ममता में परेशान रहता है। कीट जिस तरह भ्रमर का गुँजन पसन्द तो करता है किन्तु वह अहंभाव छोड़ने के लिये तैयार नहीं होता, उसी प्रकार जीव का अहंभाव में बने रहना प्रारम्भिक स्थिति है, उसके लिये जिद करना मचलना साधना की प्रारम्भिक अवस्था है। उसे पार कर लेने पर जब वह नितान्त ब्राह्मी स्थिति अर्थात् तदाकार में बदल जाता है तो उसका अहंभाव एक विशाल शक्तिमान् रूप में परिणत हो जाता है । वह अपने को ही ब्रह्म के रूप में देखने लगता है। “मैं ही ब्रह्म हूं” यह स्थिति ऐसी है जिस में जीव की शक्तियाँ विस्तीर्ण होकर ईश्वरीय शक्तियों में बदल जाती हैं।
और संसार में सुख स्वामित्व और विकास के लिये तीसरी वस्तु जो आवश्यक है वह शक्ति भी उसे मिलती है। शक्ति बुद्धि और साधन पाकर जीव दिनों दिन उन्नति की ओर बढ़ता जाता है। यह सही है कि परमात्मा-भाव अपने निश्चित समय में पकता है इसलिये फल देखने के लिये मनुष्य को भी निर्धारित नियमों और समय की प्रतीक्षा करनी पड़े किन्तु यह निश्चित है कि मनोवाँछित सफलता और जीवन विकास का अधिष्ठाता परमात्मा ही है । उसकी भक्ति के बिना वह सब उपलब्ध नहीं हो सकता जिसकी हम इस जीवन में कामना करते हैं
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